एक दौर वह भी था जब आईएएस और आईपीएस अधिकारी रिटायर होने के बाद राजनीति ज्वाइन करने के बारे में सोचते थे क्योंकि वे नौकरी के दौरान राजनीति की बारीकियां सीख जाते थे। लेकिन वर्तमान दौर में अब यह ट्रेंड बदलता हुआ नजर आ रहा है। अधिकारियों को अब राजनीति इस कदर भा रही है कि उन्हें इसके लिए नौकरी छोड़ने से परहेज नहीं है। जिसका ताजा उदहारण यूपी काडर के 2011 बेच के आईएएस अधिकारी अभिषेक सिंह और इसी बैच के बिहार के रहने वाले आईपीएस आंनद मिश्रा है। हालाँकि सूत्रों का माना जाए तो यह दोनों अफसर जिस सीट से बीजेपी के टिकट से चुनाव लड़ना चाहते थे उन सीटों पर पार्टी ने लोकसभा चुनाव के प्रत्याशी के रूप में किसी और का नाम घोषित कर दिया है
चंद सालो में खत्म हो गया नौकरी का मोह
जौनपुर जिले के केराकत तहसील के टिसौरा गांव निवासी आईएएस अभिषेक सिंह ने अक्तूबर 2023 में इस्तीफा दिया था। जिसे केंद्र सरकार की संस्तुति के बाद प्रदेश सरकार ने भी मंजूरी दे दी। इस्तीफे के दौरान चर्चा के मुताबिक अभिषेक जौनपुर लोकसभा सीट से चुनावी मैदान में जोर आजमाना छह रहे थे लेकिन लोकसभा चुनाव के प्रत्याशी घोसित करते समय भारतीय जनता पार्टी ने कृपा सिंह को चुनावी मैदान में उतार दिया। आईएएस अभिषेक सिंह ने 2011 में नौकरी की शुरुआत की थी। उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा में 94वीं रैंक हासिल की थी। साल 2013 में उन्हें झांसी में बतौर जॉइंट मजिस्ट्रेट तैनाती मिली। साल 2014 में उन्हें सस्पेंड किया गया और साल 2015 में प्रतिनियुक्त कर तीन साल के लिए दिल्ली भेजे गए। अभिषेक ने मेडिकल लीव ली और लंबे समय तक नौकरी पर नहीं लौटे। इसको देखते हुए मार्च 2020 में फिर से उनका तबादला कर उन्हें यूपी भेजा गया। इसके बाद भी उन्होंने काफी दिनों तक ज्वाइन नहीं किया। साल 2022 में उन्हें गुजरात विधानसभा चुनाव में प्रेक्षक बनाकर भेजा गया। अभिषेक ने उनकी गाड़ी के सामने एक फोटो खिंचवाई जो खूब वायरल हुई। नतीजन चुनाव आयोग ने उन्हें प्रेक्षक के पद से हटा दिया और अभिषेक फिर से यूपी लौटे। फरवरी 2023 में उन्हें फिर से निलंबित कर दिया। अक्तूबर 2023 में अभिषेक ने इस्तीफा दे दिया। पूर्व आईएएस अभिषेक बीते दो महीनों से जिले में लगातार सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। समाजसेवा में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बाद से ही उन्होंने जौनपुर के लोगों के लिए निषाद रथ यात्रा शुरू की है जो बीते सात फरवरी से निरंतर संचालित हो रही है। इसके अलावा उन्होंने जिले के लोगों के लिए फ्लाइट टिकट बुकिंग पर छूट, उनके द्वारा शुरू की गई वीडियो व रील प्रतियोगिता में विजेताओं को बाइक दे रहे हैं। साथ ही आए दिन भंडारे, जनता दर्शन आदि भी कर रहे हैं। इन सब को लेकर पहले से ही लोग उनके चुनाव में उतरने की कयास लगा रहे थे।
छोड़ी IPS की नौकरी लेकिन नहीं मिला मौका
बिहार में बक्सर जिला के परसौंडा के रहने वाले असम काडर के IPS आनंद मिश्रा ने यूपीएससी की परीक्षा महज 22 के उम्र में क्रैक कर ली थी। 2011 बैच के IPS आनंद मिश्रा ने 22 साल में आईपीएस बनने के बाद करीब 12 साल भारतीय पुलिस सेवा को दिया। असम के लखीमपुर जिले के एसपी आनंद मिश्रा इस सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे। उम्मीदवारों की घोषणा से पहले तक माना जा रहा था कि अश्विनी चौबे का पत्ता कटने के बाद बीजेपी IPS आनंद मिश्रा को ही टिकट देगी, लेकिन जब बीजेपी की लिस्ट आई तो उसने सबको चौंका दिया। भाजपा ने बक्सर से मिथिलेश तिवारी को उम्मीदवार अपना प्रत्याशी घोषित किया। आनंद मिश्रा इस सीट पर चुनाव लड़ने के लिए खूब मेहनत कर रहे थे इतना ही नहीं उन्होंने अपनी नौकरी से भी वीआरएस ले लिया था, जिसके बाद वो क्षेत्र में काफी एक्टिव हुए थे। हालांकि बक्सर की सीट पर आनंद मिश्रा पहले नहीं थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में भी बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे बक्सर की सीट से विधानसभा का चुनाव लड़ना चाहते थे. इसके लिए गुप्तेश्वर पांडे ने नौकरी से वीआरएस लेकर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू की सदस्यता भी ली थी. ऐसा माना जा रहा था कि नीतीश कुमार, गुप्तेश्वर पांडे को बक्सर से चुनाव लड़ने के लिए अपनी पार्टी का सिंबल देंगे, लेकिन सीट बंटवारे के वक्त यह सीट बीजेपी के खाते में चली गई. बीजेपी ने सीट से परशुराम चतुर्वेदी को टिकट दिया था. जिसकी वजह से गुप्तेश्वर पांडे चुनाव नहीं लड़ पाए. अब ठीक उसी तरह एसपी आनंद कुमार मिश्रा भी गच्चा खा गए।
चुनाव के दौरान
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. खासकर 2019 के लोक सभा के पहले तो स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर राजनीति में आने वाले ऐसे अधिकारियों की लाईन-सी लग गई थी। इनमें कई अधिकारी तो ऐसे थे, जो न केवल सरकार के बहुत महत्वपूर्ण पदों पर काम कर रहे थे, बल्कि जिन्हें अभी अपनी नौकरी में लम्बी पारी भी खेलनी थी। उड़ीसा कैडर की 1994 बैच की आई.एस.एस अपराजिता सारंगी भुवनेश्वर से चुनाव लड़ीं थीं. इसी कैडर की नलिनी कान्ता प्रधान आय.ए.एस. छोड़कर संबलपुर से चुनाव लड़ी. सीबीआई के संयुक्त निदेशक आईपीएस वी.वी.लक्ष्मण नारायण ने विशाखापट्टनम से जोर-आजमाइश की। इतना ही 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान आईपीएस असीम अरूण और राजेश्वर सिंह दोनों विशेष रूप से याद किये जाते हैं। असीम अरूण भारतीय पुलिस सेवा के 1994 बैच के तथा राजेश्वर सिंह राज्य पुलिस सेवा के 1997 बैच के अधिकारी हैं.
स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का विकल्प
इंडियन सिविल सर्विसेस तथा अन्य केन्द्रीय सेवाओं का कोई भी अधिकारी प्रॉविजन आफ फंडामेंटल रूल्स एंड सीएसएस (पेंशन) रूल्स, 1972 के अनुसार नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले सकता है। यदि वह सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन एवं अन्य सम्बद्ध सभी लाभ चाहता है, तो उसे कम से कम 20 साल की नौकरी या फिर पचास वर्ष की उम्र पूरी करनी होती है। नियम यह है कि कोई भी अधिकारी एक निश्चित समय का नोटिस देकर वीआरएस के लिए आवेदन कर सकता है। नोटिस पीरियड तीन महीने का होता है. बाद में जब यह देखा गया कि राज्य सरकारें इस नोटिस पीरियड की अवधि का समुचित रूप से पालन न करके आवेदन को बहुत लम्बे समय तक के लिए यूं ही स्थगित रखती हैं, तब कानून में एक संशोधन किया गया. वर्तमान में नियम यह है कि यदि तीन माह के अन्दर सरकार कोई निर्णय नहीं लेती है, तो इस अवधि के पूरा होते ही उन्हें सेवा से निवृत्त मान लिया जाता है। सामान्यतया यह स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति मिल ही जाती है, बशर्ते कि उस समय वह अधिकारी सस्पेंड न हुआ हो और उसके खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई मामला न चल रहा हो।
आसान नहीं ऐसा फैसला
वीआरएस लेना, विशेषकर उच्च पदों पर काम करने वाले अधिकारियों के लिए आसान निर्णय नहीं होता है। इसलिए सरकार ने इस कानून में एक थोड़ी-सी गुंजाइश भी छोड़ रखी है। गुंजाइश यह है कि यदि नोटिस पीरियड के बीच में सरकार उसके अनुरोध को स्वीकार कर लेती है, लेकिन बाद में अधिकारी को लगता है कि उसे वीआरएस नहीं लेना चाहिए था, तो वह अपना आवेदन वापस ले सकता है. किन्तु तीन महीने का नोटिस पीरियड खत्म होने के बाद अनिवार्य रूप से सेवा से मुक्त होना पड़ता है। इसके बाद वह कभी भी सेवा में वापस नहीं आ सकता।
संख्या नहीं के बराबर
अक्सर यह देखा गया है कि सर्विस छोड़कर आने वाले अधिकांश अफसर भारतीय प्रशासनिक सेवा के होते हैं। दूसरे स्थान पर भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं। केन्द्रीय सेवाओं से आने वालों की संख्या नहीं के बराबर है। जाहिर है कि ऐसा इन अधिकारियों के अपने कार्यकाल के दौरान वहाँ के स्थानीय नेताओं से निजी संबंध बन जाने के कारण ही संभव हो पाता है। हालांकि सिविल कंडक्ट रूल्स के अंतर्गत किसी भी सरकारी अधिकारी से राजनैतिक तटस्थता की अपेक्षा की जाती है, लेकिन यह इस बात का प्रमाण है कि कानूनन भले ही वह तटस्थता दिखाई दे, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से ऐसा होता नहीं है।